उझानी बदांयू 29 दिसंबर।
माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के कर्मचारियों के फैलाए मायाजाल में अनपढ़ महिलाएं खुद फंसकर शिकार बन रही हैं। बिना दस्तावेजों के रुपये पाने की लालच में अंग्रेजी में लिखी शर्तों को बिना समझे फॉर्म पर अंगूठा लगाने वाली इन महिलाओं की मुश्किलें किस्त रुकने के साथ शुरू हो रही हैं। इसका असर उनके घर-परिवार पर भी पड़ रहा है। आए दिन पारिवारिक कलह,व पलायन जैसी घटनाएं बढ़ती जा रही है।
देहात क्षेत्र के इलाकों में फैली अशिक्षा को माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के एजेंट ढाल बनाकर शिकार बनाते हैं। जानकारी के अनुसार, लोन देने की आड़ में यह उन महिलाओं या परिवारों का चयन करते हैं जो अनपढ़ हों और आसानी से उनके जाल में फंस जाएं। इसके बाद उन्हें लोन देने के नाम पर फॉर्म से अतिरिक्त कई ऐसे कोरम पूरा कराते हैं, जो उन्हें समझ में ही नहीं आता। इसमें अंग्रेजी भाषा का फॉर्म भी शामिल होता है। एजेंट पर भरोसा कर लोग बिना पढ़े ही अंगूठा और हस्ताक्षर कर देते हैं। इसका फायदा ब्याज पर लोन देने वाले लोग उठाते हैं। लोन देने के नाम पर समूह के सदस्यों से साइन किया हुआ ब्लैंक चेक भी अपने पास बतौर गारंटी रख लेते हैं। बाद में किस्त देने के नाम पर इतनी ब्याज की राशि जोड़ी जाती है जो शासन के मापदंडों और नियम-कानून के विपरीत होती है। माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के कर्मचारियों एवं समूह लीडर मिलकर भोले-भाले गरीब अनपढ़ लोगों को निशाना बना कर मोटी रकम ऐंठ लेते हैं।
मलिक पुर,नरऊ, नसरूल्लापुर ,बुटला दोलत,बसोमा, अढौली, बरामालदेव, सहित दर्जनों गांवों में एजेंट सक्रिय है
क्षेत्र से जुड़े लोगों की मानें तो फाइनेंस कंपनियों के एजेंटों को कंपनी की ओर से रोजाना टारगेट दिया जाता है। इसे पूरा करने पर उन्हें अच्छे वेतन के साथ मोटा कमीशन मिलता है। जब इनका टारगेट नहीं पूरा होता है तो वह अधिक सक्रिय होकर इन गांवों में शिकार की तलाश में निकल जाते हैं। अब इन क्षेत्रों में कर्ज लेने वाली महिलाओं की संख्या इतनी ज्यादा हो चुकी है कि आए दिन उत्पीड़न और अन्य मानसिक प्रताड़ना की घटनाएं सामने आ रही हैं।
कर्ज के जाल में फंसकर कई महिलाओं के खेत बिक चुके हैं, जबकि दर्जनों महिलाएं परिवार सहित घर छोड़कर ईट भट्टो पर अन्य प्रदेशों में काम करने को मजबूर हैं।
माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के मकड़जाल में ग्रामीण क्षेत्र के सेकडो बेरोजगार भी फंस चुके हैं। इन कंपनियों की कार्यप्रणाली पुराने जमाने के साहूकारों से भी जटिल बताई जाती है। आसानी से कर्ज मिलने के लालच में जरूरतमंद ग्रामीण इनकी हर बात मानते चले जाते हैं, मगर एक बार रकम ले लेने के बाद अदा करने में उनकी उम्र बीत जाती है। बाद में किस्त जमा न होने पर परिवार को प्रताड़ित करते हैं। जिले में विभिन्न नामों से दर्जन भर से ज्यादा कंपनियां कस्बों में कार्यालय खोलकर अपने एजेंट के जरिए मजदूर वर्ग का समूह बनाकर उन्हें लोन देने का कार्य कर रही हैं। इलाज, जरूरत का सामान खरीदने, दुधारू पशु लेने, शादी-विवाह या अन्य आवश्यकता होने पर गरीब तबका यह सोचकर उनसे लोन ले लेता है कि धीरे-धीरे कमाई कर किस्त भर देंगे। भारी भरकम ब्याज के कारण वह समय से किस्त अदा नहीं कर पाते। जानकारों का कहना है कि ऋण स्वीकृत होने के बाद रकम का एक हिस्सा प्रोसेसिंग चार्ज व बीमा के नाम पर काट लिया जाता है। यानी अगर किसी का 30 हजार रुपये ऋण स्वीकृत हुआ तो उसके हाथ में बमुश्किल 24-25 हजार रुपये ही आते हैं।
राजेश वार्ष्णेय एमके।