उड़ीसा जिले के याजपुर गाँव में- “बन्धु महान्ति ” रहते थे।_*
*_उनके परिवार में पति परायण पत्नी,एक बालक और दो बालिकाएँ थीं।_*
*_बन्धु बड़ा ही गरीब था, भीख ही उसकी आजीविका थी।_*
*_पर भीख माँग कर धन जोड़ना उसका काम नहीं था,_*
*_जो मिलता था,उससे आज भर के खाने योग्य अन्न ले आता।_*
*_उसी अन्न से अतिथि सेवा होती,_*
*_यदि कुछ नहीं मिलता, तो सारा परिवार ‘‘हरि का नाम” लेकर उपवास रख लेता।_*
*_बाहर से देखने पर बन्धु- परिवार की स्थिति बड़ी कष्टप्रद प्रतीत होती थी, परन्तु उनके हृदय में लेशमात्र भी क्लेश नहीं था।_*
*_भगवान में अटल प्रेम और विश्वास ने- उनके अन्तःस्थल को बड़ा ही मधुरमय बना रखा था।_*
*_उनको किसी भी वस्तु की चाह नहीं थी, वे विषयी मनुष्यों की दृष्टि में दरिद्र भिखारी होने पर भी महान धनी थे, ‘बादशाहों’ के बादशाह थे।_*
*_एक बार उड़ीसा राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। चारों ओर हाहाकार मच गया।_*
*_तीन दिन हो गये, बन्धु परिवार उपवास कर रहा था।_*
*_बच्चों की बिल- बिलाहट से माता का हृदय द्रवित हो रहा था।_*
*_स्त्री ने पति से कहा: स्वामी ! मेरे पिता के घर में तो कोई भी नहीं है- जिससे सहायता मिल सके, परन्तु क्या आपके भी कोई बन्धु बान्धव नहीं है…..?_*
*_बन्धु ने उत्तर दिया: प्रिये ! मेरा इस जगत् में तो कोई भी आत्मीय स्वजन नहीं है। हाँ, एक हृदय के मित्र हैं। उनका नाम भी इतना मीठा है।_*
*_मेरे उन बन्धु का नाम है- “दीनबन्धु दीनानाथ “, वे हम- सरीखे दीनों के प्रति बड़ा ही प्रेम रखते हैं।_*
*_लेकिन वे बहुत ही दूर रहते हैं- और हमें पाँच दिन लगेंगे- उन तक पहुँचने में।_*
*_पति की बात सुनकर पत्नी को बड़ा ही सुख मिला- उसने कहा:_*
*_‘‘नाथ ! पाँच दिनों का ही तो पथ है, चलिये वहाँ दीन बन्धु के दरबार में जाकर अपना सारा दुःख दूर कर लें !_*
*_बन्धु ने मुस्कुराकर इशारे से सम्मति दे दी, पत्नी घर के अन्दर गयी।_*
*_बन्धु मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगे- प्रभो ! आपका प्रेम मुझे खींचे लिये जा रहा है।_*
*_बहुत दिनों से आपके चरण दर्शन की अभिलाषा थी।_*
*_आज इस-अकाल रूपी मित्र- की सहायता से यह मनोरथ पूर्ण होगा।_*
*_नाथ ! आर्शीवाद दीजिए कि वन्दित चरणों के दर्शन कर सकूँ।’_*
*_बन्धु,परिवार सहित अपने परम प्रिय मित्र से मिलने के लिए चल दिये, रास्ते में कहीं अन्न नहीं मिला।_*
*_साग- पात खाकर ही काम चलाया गया।_*
*_बन्धु को तो भूख- प्यास की खबर ही नहीं है, वह तो हरि दर्शन के लिये दौड़ जाना चाहता है।_*
*_पाँचवें दिन सन्ध्या होते- होते बन्धु परिवार सहित- श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र पुरी में पहुँचा।_*
*_मन्दिर के दूर से ही दर्शन कर वह गद्गद् हो गया,_*
*_बोला- वह देखो ! मेरे प्यारे दीनबन्धु का मन्दिर दिखायी पड़ता है। सब के शरीरों में जान आ गयी। देखते ही देखते सब सिंहद्वार के सामने आ पहुँचे।_*
*_सिंहद्वार पर बड़ी भीड़ है, इस समय भूखे स्त्री- बच्चों के साथ भीतर जाना सम्भव नहीं, यह विचारकर बन्धु ने दूर से ही भगवान् जगत- बन्धु के दर्शन किये- और दक्षिण की ओर पेयनाले (फेन बाहर निकलने के नाले ) के पास लाकर सबको बिठा दिया।_*
*_पत्नी ने कहा- स्वामी ! बन्धु के घर आकर भी इस नाले पर क्यों बैठे हैं ? देखिए, संध्या हो गयी है, रात के अन्धकार में बच्चों को लेकर कहाँ जायेंगे…?_*
*_एक बार अपने दीनबन्धुु से मिल तो लीजिए।_*
*_दृढ़निश्चयी बन्धु ने मन- ही- मन सोचा.. तुच्छ आहार की कामना से दीनबन्धु के पास जाना ठीक नहीं- सवेरे मन्दिर खुलने पर दर्शनार्थ जाऊँगा।_*
*_अतः उसने पत्नी से कहा, हम लोग बड़े कु-अवसर पर आये हैं, आज यदि फेन नाले का पानी पीकर रात गुजार लें, तो सबेरे मन्दिर खुलने पर एकान्त में, मिल कर बन्धु से सारी बातें कहूँगा।_*
*_बन्धु की बात पत्नी के मन में जँच गयी, उसने कहा- अच्छी बात है, अभी इसी फेन से काम चला लेते हैं।_*
*_बन्धु ने फूटी हड़ियाँ से फेन भर भर कर पत्नी और बच्चों को दे दिया। स्त्री ने, तीनों बच्चों को पिलाया- और खुद भी पेट भर पिया।_*
*_आहा ! ‘‘अन्न की कद्र भूखे ही जानते हैं। जिनको अधिक खाने के कारण मन्दाग्नि हुई रहती है- उन्हें भूख की व्याकुलता का पता ही नहीं’’।_*
*_स्त्री-बच्चों का पेट भर गया,वे सो गये।_*
*_इधर बन्धु महान्ति भगवान से प्रार्थना करने लगे- मेरे नाथ ! तुम सारे चराचर में व्याप्त हो, जीवों पर कृपा करना ही तुम्हारा कार्य है। मेरे मन में कोई कामना हो- तो उसे दूर कर दो। ऐसी कृपा करो- जिससे आपकी कृपा का दर्शन प्रतिपल कर सकूँ’’।_*
*_इधर जगन्नाथ जी की सेवा समाप्त हुई, सेज सजाकर- उन्हें सुलाया गया, मशालें जल गईं,_*
*_मन्दिर के दरवाजों पर ताले लग गये, सारे सेवकगण अपने- अपने घर जाकर सो गये।_*
*_सब सो गये, परन्तु भक्तवत्सल भगवान् को नींद नहीं आई। वे उठे और तुरन्त भण्डार गृह में गये।_*
*_भण्डारे में रखा हुआ छप्पन भोग सजाया- और स्वयं एक ब्राह्मण के रूप में सोए हुए बन्धु महान्ति के पास जाकर पुकारने लगे- बन्धु ! ओ बन्धु !_*
*_स्त्री ने पति को जगाकर कहा- सुनिये, कोई पुकार रहा है !_*
*_बन्धु बोले- हो सकता है, पुरी में किसी और का भी नाम बन्धु हो, तुम सो जाओ।_*
*_भक्तवत्सल भगवान भक्त के हृदय की बात जान गये, और फिर ऊँचे स्वर से पुकारा- ओ याजपुरिया बन्धु ! ओ फेन नाले पर सपरिवार भूखे पड़े हुए बन्धु!_*
*_उठो। भाई यहाँ आओ। मैं तुम्हारे लिये प्रसाद लेकर खड़ा हूँ’’।_*
*_यह आवाज सुनकर बन्धु का हृदय पुलकित हो गया- उसने सोचा- क्या सचमुच ही दीनबन्धु पुकार रहे हैं ?_*
*_मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा….?_*
*_हड़बड़ाता हुआ बन्धु उठा, देखता है, तो एक ब्राह्मण रत्नजड़ित प्रसाद थाल लिये खड़ा है।_*
*_बन्धु के सामने आते ही उसने कहा: आने में क्या इतनी देर की जाती है ? पुकारते- पुकारते मेरा गला छिल गया, देखो न थाल के बोझ से मेरे हाथ थर-थर काँप रहे हैं।_*
*_यह थाल लो,कल से तुम्हारे रहने- खाने का सारा प्रबन्ध हो जायेगा, अच्छे से खाकर सो जाओ।_*
*_बन्धु महान्ति मन्त्र मुग्ध हो गया!_*
*_साहस करके उसने कुछ कहना चाहा था, इतने में ही ब्राह्मण वेषधारी भगवान् अन्तध्र्यान हो गये।_*
*_बन्धु परिवार ने, परमानन्द से महाप्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद खाते ही उनकी सारी भूख मिट गयी।_*
*_बन्धु महान्ति की अवस्था कुछ विलक्षण सी हो गई, कभी थाल को हृदय से लगाता, कभी मस्तक से।_*
*_आनन्द में डूब कर- वह थाल पर ही सिर रखकर सो गया।_*
*_प्रातःकाल जब मन्दिर का दरवाजा खुला- तो रत्नजड़ित प्रसाद थाल के न दिखने पर चारों ओर हल्ला मच गया।_*
*_ढूँढते- ढूँढते कुछ लोग फेन नाले के पास आये,तो देखा बन्धु थाल पर सिर रखकर सो रहा है।_*
*_पकड़ो ! पकड़ो ! की पुकार मच गयी। बताने का भी अवसर नहीं मिला और बन्धु पर गालियों और थप्पड़ों की बौछार होने लगी,_*
*_पर बन्धु अटलरूप से गोविन्द ! गोविन्द ! पुकारते रहे।_*
*_कोतवाल के सम्मुख जाने पर जब उसने पूछा- तब बन्धु ने रात की सारी घटना सच- सच बता दी- पर उसे विश्वास न हुआ।_*
*_बन्धु को, परिवार के साथ कैद खाने में डाल दिया गया।_*
*_बन्धु मन- ही- मन सोचने लगा, यह मेरे पाप कर्मों का फल है। नाथ ! चाहे कुछ भी हो, मेरे मन में बस तुम्हारा स्मरण बना रहे-_*
*_गिरते गिराओ,काले नाग तें डसाओ, हां, हां।प्रीति न छुड़ाओ- गिरधारी नन्दलाल सो।_*
*_जो कुछ हो, सो केवल एक तुम्हीं हो, मैं तो केवल एक तुम्हें ही जानता हूँ।_*
*_जगन्नाथ जी को भक्त की चिन्ता हुई- उन्हें आज ही सारी व्यवस्था करनी है।_*
*_राजा प्रतापरूद्र खुरदा में- अपने महल में सोये हैं। वो भी भगवान् के परम भक्त हैं।_*
*_भगवान् ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा: राजन् ! मेरी आज्ञा सुनो!_*
*_मेरा भक्त पाँच दिन की लम्बी यात्रा कर- भूख से तड़पता हुआ- तेरे नगर में आया, उसका सत्कार होना चाहिये था! पर किसी ने उसे पूछा तक नहीं।_*
*_वह भूखा पड़ा रहा- तब- “मैं स्वयं ” अपने “रत्नथाल ” में प्रसाद रखकर उसे दे आया।_*
*_रत्नथाल तो मेरा था,उसमें तुम्हारा या मन्दिर के पुजारी का क्या था…..?_*
*_अब यदि तुम अपना भला चाहते हो,तो अभी जाकर- उसे मुक्त करो और पूरे सम्मान के साथ, उसके रहने- खाने का सारा प्रबन्ध करो!_*
*_और मन्दिर के हिसाब- रक्षक के पद पर उसकी नियुक्ति कर दो ! इतना कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये।_*
*_राजा हड़बड़ाकर उठा, उसी समय घोड़ा मंगवाया,और सीधे पुरी के कारागार में पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा कि स्वप्न की बात रत्ती- रत्ती सच है।_*
*_उसने स्वयं अपने हाथों से बन्धु की बेड़ियाँ खोली, और पैर पड़ कर बन्धु से क्षमा माँगी।_*
*_भक्त सच्चे विनयी होते हैं,दूसरों का दुःख देख नहीं पाते।_*
*_राजा को क्षमा माँगते देख- बन्धु को बड़ा कष्ट हुआ,उसने कहा महाराज- आप मेरे चरण मत पकड़िये मैं तो महापापी हूँ।_*
*_पर राजा ने उनके चरणों को नहीं छोड़ा। बन्धु ने स्वयं राजा को उठाया।_*
*_भगवान की आज्ञानुसार राजा, “बन्धु महान्ति” और पूरे परिवार को बहुत सम्मान के साथ अपने साथ महल में ले गया! और जैसी प्रभु की आज्ञा थी, वैसी ही सारी व्यवस्था उनके लिए कर दी।_*
*_भक्त का प्रभाव सब तरफ छा गया, जो लोग उसको गालियाँ दे गये थे, वो सब क्षमा माँगने लगे।_*
*_अब दीनबन्धु दीनानाथ की कृपा से बन्धु महापुरुष हो गये। जगद्बन्धु जिसके बन्धु हैं, उसके लिये सब कुछ सम्भव है।_*
*_आज भी जगन्नाथ जी के मन्दिर के आय- व्यय का हिसाब श्री बन्धु महान्ति के वंशज ही कर रहे हैं।_*
*_🌹 जय जगन्नाथ स्वामी 🌹_*
*_🌸 जय श्री राधे 🌸
*_🪷 गूगल से साभार 🪷_*