*व्यक्ति का वास्तविक मूल्य उसके ना रहने पर ही समझ आता है जैसे हाथ और पांव को हम कहां अहमियत देते हैं किंतु जब हाथ या पांव कट जाएं तब हमें उनकी कीमत पता लगती है ! मेरे जीवन संगिनी देवी प्रज्ञाआर्य गृहस्थ में रहते हुए साध्वी थीं ! विदुषी थीं बहुत अच्छी गायिका थी परोपकार के गुण कूट-कूट कर भरे थे, सेवाभावी थीं, गृह कार्य दक्ष थीं इसीलिए सब कहते हैं प्रज्ञा जैसी कोई नहीं !*
*उनकी दूसरी पुण्य तिथि पर हम उन्हें शत-शत नमन करते हैं ! 2 वर्ष अवश्य बीत गए किंतु लगता है कि जैसे वह हैं* .. *आसपास ही हैं जबकि सच यह है कि वह नहीं है कहीं नहीं है*! 🥲🌹👏