।****//**** बदायूं 6 जून।
प्रदेश में भाजपा की पूरी रणनीति, जातीय समीकरण और योगीराज का करिश्मा फेल हो गया। सर्वणों से दूरी,व पिछड़ों से नजदीकी भी पड़ी भारी, भाजपा की रणनीतिक रूल-बुक का कोई भी पैंतरा कारगर साबित नहीं हुआ। संविधान बदलने का आरोप और आरक्षण छिनने का डर ही अति पिछड़ी व दलित जातियों के भाजपा से मोहभंग का कारण बना।
अगर भाजपा को रोकने का श्रेय किसी एक राजनेता को जाता है, तो वह अखिलेश यादव ही हैं। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और कर्नाटक में तो लड़ाई प्रत्याशित थी। लेकिन उत्तर प्रदेश के नतीजे अप्रत्याशित रहे। भाजपा को भनक भी नहीं लग सकी कि उसके पैरों के तले चुनावी जमीन खिसक चुकी है।
संविधान बदलने का आरोप और आरक्षण छिनने का डर ही अति पिछड़ी व दलित जातियों के भाजपा से मोहभंग का कारण बना। दरअसल, पार्टी से ज्यादा उम्मीदवारों के प्रति सत्ता विरोधी लहर थी। जो उम्मीदवार बदले गए, उनके नतीजे बेहतर थे। लेकिन तीसरी बार लड़ाए गए तीस में से छब्बीस उम्मीदवारों को हार का स्वाद चखना पड़ा।
इस समय नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति के महानायक हैं। यह चुनाव उन्हीं के पक्ष व विरोध में हुआ। उनकी विजय यात्रा का इंजन भी उत्तर प्रदेश में बना है, लेकिन उनके होते हुए इस बार उनका अपना चुनावी गृह राज्य हाथ से निकल गया। बुलडोजर बाबा के नाम से देश में विख्यात योगी आदित्यनाथ देखते रह गए। उनके जादू का क्या हुआ? सवाल पेचीदा है। नतीजों को खंगालते हुए ऐसा लगता है कि शायद ही उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति अतिआत्मविश्वास या आत्ममुग्धता पर केंद्रित थी। प्रत्याशी और महानायक के बीच संतुलन नहीं बैठा। प्रत्याशियों से जनता की नाराजगी भारी पड़ी।
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने अमित शाह के नेतृत्व में 2014 में एक जातीय समीकरण बनाया था, जिसमें गैर यादव पिछड़ों के साथ छोटी-छोटी अति पिछड़ी जातियां कुर्मी, पाल, राजभर, कुम्हार, निषाद, मिर्धा आदि भाजपा के लिए गोलबंद हुई थीं। भाजपा के परंपरागत वोटबैंक के अलावा यह अनोखा ध्रुवीकरण था। इस बार यह गठजोड़ टूटा। उत्तर प्रदेश के जातीय गणित में ये छोटी जातियां कितनी मूल्यवान हैं, इसे अखिलेश यादव ने पहचाना। समाजवादी पार्टी ने टिकट वितरण में उन स्थानीय जातियों को चुना, जिनकी मदद से एक नई इंजीनियरिंग बनी। भाजपा ने इस गणित की अनदेखी की। अखिलेश दलित और पिछड़ों को यह समझाने में सफल रहे कि संविधान बदलेगा और अगर संविधान बदला, तो आरक्षण खत्म हो जाएगा। इसके अलावा इंडिया गठबंधन के एक लाख रुपये सीधे खाते में आने के वादे ने भी लोगों को आकर्षित किया।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए विख्यात उत्तर प्रदेश में जातीय मतों का ऐसा परिवर्तन होगा, यह भाजपा ने भी नहीं सोचा था। इंडिया गठबंधन का अभियान आक्रामक था। मतदाताओं से बातचीत में इसे भांपना कठिन नहीं था कि संविधान बदलने और आरक्षण खत्म होने की आशंकाओं ने मतदाताओं को प्रभावित किया। उत्तर प्रदेश में बेरोजगार युवा नाराज था , पेपर लीक पर उनकी नाराजगी को शायद भाजपा भी नहीं समझ सकी। ग्रामीण इलाकों में आवारा पशुओं का कहर, महंगाई और बेरोजगारी मुफ्त अनाज पर भारी पड़ी। न मंदिर मुद्दा था, न हिंदुत्व। राष्ट्रवादी मुद्दे भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। सिर्फ जातियों की गोलबंदी और उम्मीदवार केंद्रित यह चुनाव था। अयोध्या, फैजाबाद में जहां 500 वर्ष की हिंदू भावनाओं का शिखर मंदिर बनकर तैयार हुआ, जो देश में मुख्य मुद्दा बना, वहां भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। पार्टी के भीतर एक संशय और अविश्वास की खाई पूरे चुनाव के दौरान दिखी।
गुजरात से शुरू हुआ राजपूतों का विरोध, वह गुजरात में तो मोदी की वजह से ठंडा पड़ गया, पर उत्तर प्रदेश आते-आते तेज हुआ। राजपूत बिरादरी का अनमनापन गाजीपुर आते-आते विरोध में बदल गया। मुख्यमंत्री की ओर से इसे रोकने का कोई उपाय नहीं हुआ। पार्टी ने कमोबेश ऐसी ही स्थिति 1998 में देखी थी, जब कल्याण सिंह पार्टी में रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी से अपने विरोध के कारण चुनाव के प्रति उदासीन हो गए थे और तब भी पार्टी उत्तर प्रदेश में 35 पर सिमट गई थी। इस बार भी पार्टी के भीतर हार के कुचक्र रचे गए। इसे आप कल्याण सिंह पार्ट-2 कह सकते हैं। यह भाजपा के लिए आत्मचिंतन का मौका है। पार्टी ने जिन जिलों में तंत्र खड़े कर लिए हैं, वहां समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है। पन्ना प्रमुख और बूथ अध्यक्ष की योजना सिर्फ कागज पर है। मतदान प्रतिशत से यही साबित हुआ। – सुशील धींगडा संपादक