हमारे धार्मिक ग्रंथ मात्र पूजन के निमित्त नहीं
धर्म ग्रंथों के प्रति श्रद्धा का भाव रखना सराहनीय हैं। लेकिन इन धार्मिक ग्रंथों के प्रति वैसी श्रद्धा का क्या महत्व जब आपके व्यवहार इनके द्वारा सुझाए गए रास्तों के अनुरूप नहीं हो?
क्या धार्मिक ग्रंथ सिर्फ इसलिए लिखे गए हैं कि हम केवल उसकी पूजा अर्चना करें ? प्रति दिन उसके आगे माथा टेकें ? उन्हें केवल आदर दें?
👉 उत्तर है नहीं।
धार्मिक ग्रंथ पूजनीय हैं, हमारे मन में उनके प्रति आदर होना चाहिए यह भी आवश्यक है लेकिन वह ग्रंथ लिखे गए हैं कि हम उसे अपने चित में उतार सकें। सबसे महत्वपूर्ण है उनको पढ़ना, समझना एवं अपने व्यवहार में लाना।
👉धार्मिक ग्रंथों में जो मानवता के सिद्धांतों का ज्ञान बताया जाता है उस पर व्यवहारिक आचरण करना ही तो असली पूजा है।
लेकिन यह उतना आसान नहीं है, इसके लिए हमें ग्रंथों को पढ़ना होगा एवं अर्थ जानना होगा ,अर्थ जानने के पश्चात हमें उस अर्थ का भावार्थ जानने की इच्छा जाग्रत होगी।
हम उस पर स्वाभाविक रूप से मनन करेंगे। जिज्ञासाएं जन्म लेंगी| हम ज्ञानी पुरुषों से और अन्य स्रोतों से जिनमें हमारे स्वयं के अनुभव भी शामिल हैं, उन जिज्ञासाओं को शांत करने का प्रयास करेंगे|
जैसे-जैसे जिज्ञासाएं शांत होंगी, हमारे ज्ञान में भी वृद्धि होगी। हमें प्रारम्भ में सरल सी लगने वाली बातों का मर्म समझ आएगा और सच्ची तस्वीरें सामने आयेंगी |
कोई कार्य करते समय धर्म-ग्रन्थ में उल्लिखित सम्बंधित बात हमारे सामने आएगी जो हमें ग़लत कार्य करने से रोकेगी।
हमें अपने जीवन का उद्देश्य पता लगेगा साथ ही यह भी पता चलेगा कि हम अपने जीवन के उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं अथवा नहीं। हम सच्चे इंसान बन रहे हैं कि नहीं।
हमारे कार्य करने के तरीके बदलेंगे, आचरण एवं व्यवहार बदलेगा तथा हमारे चरित्र में सुधार आयेगा|
– हेमंत कुमार दुआ