ख़ुद को निश्चेष्ट सा महसूस किया जब पता चला कि सुबह अचानक 11 बजे चाय पीते- पीते बदायूँ की साहित्यिक पहचान को अपनी निडर,प्रखर और प्रवर रचनाधर्मिता से और अधिक चमकाने वाले हम सबके आदरणीय टिल्लन वर्मा जी नहीं रहे।
थोड़ी देर बाद उनसे हाल फ़िलहाल हुई व्हाट्सअप चैट पढ़ने लगी और सोचने लगी कि पिछले हफ्ते ही तो मेरा मोबाइल नंबर किसी को देते हुए ग़लती से मेरा फोन लग गया था उनसे।मैंने हँसते हुए कहा था कि अच्छा हुआ चाचा जी कि फोन लग गया,कम से कम आपकी आवाज़ तो सुन ली।तो वो अपने देसी अंदाज़ में हँसे और बोले- जे सही कई लल्ली।
और आज उनकी आवाज़ का हमेशा के लिए ख़ामोश होने का समाचार मिल गया।
कहते हैं ना साहित्य वही श्रेष्ठ जो जन जन की बात करता हो।तो वर्तमान में अतिश्योक्ति नहीं है कि मैं कह सकती हूँ कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनकी क़लम का कोई सानी नहीं।निडर,निष्पक्ष लेखन का उदाहरण हैं उनकी रचनायें।यहाँ की लोकभाषा में भी उन्होंने ख़ूब लिखा।नवगीत,गीत,ग़ज़लें,मुक्त छन्द,बाल कविताएं,कजरी,सावन सबमें समान रूप से पारंगत थे वो।
साहित्यिक गतिविधियों में ख़ूब सक्रिय रहते थे।आसपास के क्षेत्रों में कवि सम्मेलन भी संयोजित करते थे।बदायूँ के कस्बे उझानी में रहने वाले टिल्लन जी को वहाँ के सभी लोगों का बहुत प्यार और सम्मान मिला।बहुत हँसमुख,मस्तमौला टिल्लन जी हर वर्ष ‘हुड़दंग’ नाम की एक पत्रिका निकालते थे।उनके अपने भी कई संग्रह प्रकाशित हुए।
मुझसे दो चार दिन पहले लास्ट चैट में उन्होंने मुझे इक़बाल बानो की गायी फैज़ की लिखी प्रसिद्ध नज़्म ‘ लाज़िम है कि हम भी देखेंगे ‘भेजी और बोले इसे एक बार सुन लो फिर इसके सअर्थ अपनी एक रचना भेजूँगा,पढ़कर बताना।
मैंने पढ़ी और अभिभूत हुए बिना न रह सकी।वर्तमान के विविध अनुत्तरित प्रश्नों को क्या धारदार तरीक़े से उन्होंने उठाया था उस रचना में।मैं हमेशा उनकी इसी स्पष्टता की क़ायल रही।
एक समय था जब मेरे लेखन पर मेरे ही शहर के कुछ रचनाकारों ने अनेक प्रश्नचिन्ह लगाए।मैं अपना हर विरोध बहुत शांत चित्त से स्वीकार करती हुई अपना कार्य करती रही।दर्द था पर मुस्कुराती रही।ऐसे में मेरे लेखन को चुपचाप ऑब्ज़र्ब करके जिन्होंने मेरा पुरज़ोर समर्थन करके मुझे शाबाशी दी उनमें से सबसे प्रमुख नाम टिल्लन वर्मा जी का था।
हमारे परिवार से सदा से घनिष्ठ रहे टिल्लन वर्मा जी ने मुझे हमेशा बेटी की तरह प्यार दिया।जब आते तो मिठाई ज़रूर लाते।मैं कैसे भूल सकती हूँ पिछली 20 जनवरी में जब वो मेरे घर मुझसे मिलने आ रहे थे कि एक रोड एक्सीडेंट का शिकार हो गये।चश्मदीदों ने बताया कि मेडिकल कॉलेज के सामने खून से लथपथ पड़े थे वो और पास में मिठाई के डिब्बे से मिठाई बिखरी पड़ी थी।मैं रो पड़ी।हॉस्पिटल में जब गयी उन्हें देखने तो उनसे अपने भीतर पल रहे गिल्ट को कहा कि ये सब मेरी वजह से हुआ।अच्छे खासे आप 17 तारीख़ को आ रहे थे मैंने ही 20 को आने को बोला।तो इतने भीषण कष्ट में भी उन्होंने अपने शब्दों में मुझे मुतमइन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि सब नियति तय करती है कब क्या होगा इसीलिए मन पर कोई बोझ मत रखना बिटिया और ये कह कर ख़ुशी ख़ुशी अपने सब रिश्तेदारों को मेरा परिचय देने लगे।जल्द ही वो स्वस्थ हो गये।
अंतिम बार देवराहा बाबा इंटर कॉलेज में उनके साथ काव्य पाठ किया था।उस दिन तो बस वो ही वो रहे इतना शानदार काव्य पाठ किया था उन्होंने।रचना के साथ साथ प्रस्तुति और आवाज़ भी बहुत प्रभावशाली थी उनकी।
फक्क्ड़ मिज़ाज के थे वो।जितना वो डिज़र्व करते थे उतना उन्हें मिला नहीं।मुझे ऐसा लगता है।लेकिन उनके अंदर मैंने ऐसा भाव कभी नहीं महसूस किया।हमेशा ज़िंदादिली से जिये।जहाँ बैठ जाएं महफ़िल जमा लेते थे।मेरे यहाँ एक दिन गोष्ठी थी।जब मैंने उन्हें काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया तो वो कविता पढना तो भूल ही गये।अपने और पापा के संस्मरण सुनाने लगे और हम सब भी उनकी बातों का आनंद लेते रहे, बहुत रोचक शैली में बतियाते थे।
कितनी बातें,योजनायें अधूरी रह गयीं अचानक उनके जाने से।एक संग्रह की रूप रेखा बना चुकी थी बस उनसे बात करनी थी।किसी दिन बैठ कर उनसे वो सब संस्मरण सुनने थे जो बाक़ी रह गये थे।जिनमें मेरे परिचित,मेरे अपने थे,वो सुंदर् समय था।जब आपस में प्यार का प्रतिशत अधिक था।
ख़ैर ईश्वर के विधान को स्वीकारना है।
विनम्र श्रद्धांजलि चाचा जी।